बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 30)
कुछ वक्त और बीता।
बकरियों के साथ ही रहते थे।
सारे घर में लेंड़ियाँ। दमदार पहले से थे, बकरियों के साथ रहकर और हो गये थे।
अब तक ख़रीदी बकरियों के नाती-नातिनें पैदा हो चुकी थीं।
कुछ पट्ठे बेच भी चुके थे। अच्छी आमदनी हो चली थी।
गाँववालों की नज़र में और खटकने लगे थे।
एक दफ़ा कुछ लोग बिल्लेसुर के ख़िलाफ़ ज़मींदार के यहाँ फ़रियाद लेकर गये थे कि गाँव के कुल पेड़ बिल्लेसुर ने डूँड़े कर दिये––उनकी बकरियाँ बिकवा दी जानी चाहिए।
ज़मींदार ने, अच्छा, कहकर उनका उत्साह बढ़ाकर टाल दिया क्योंकि बिल्लेसुर की बकरियों पर उनकी निगाह पहले पड़ चुकी थी
और वे सरकारी पेड़ों की छँटाई की एक रक़म बिल्लेसुर से तै करके लेने लगे थे।
गाँववाले दिल का गुबार बिल्लेसुर को बकरिहा कहकर निकालने लगे।
जवाब में बिल्लेसुर बकरी के बच्चों के वही नाम रखने लगे जो गाँववालों के नाम थे।